लोक शब्द वैदिक काल से दिव्य तथा पार्थिव दो रूपों में प्रयुक्त हुआ है दिव्य रूप में वह आध्यात्मिक शक्तियों से सुसमृद्ध, सृजनकर्ता आनन्ददायक तथा पार्थिव रूप में ’जन’ के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। पौराणिक मान्यता के अनुसार सप्त उर्ध्व तथा सप्त अधः लोको में व्याप्त ’लोक’ का सार्थक मूल्य है जो धार्मिक, मनोवैज्ञानिक, आत्म संचालक तत्व से समन्वित होकर लोक का निर्माण करता है। विश्वव्यापी ’लोक’ में देश काल की सीमा रहित, सम्भव-असम्भव, दृश्य अदृश्य सभी समाहित है। सृष्टि के विस्तार से प्रलय तक विस्तृत लोक दर्शन जीवन को दर्पण की भाँति प्रतिबिंबित करता है इसमें मानस संवाद होकर अनुभूतियों में परिणित हो जाता है सांसारिकता निःसीम होकर सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, आध्यात्मिक मूल तत्वों पर केन्द्रित हो जाती है जिसमें जीवंतता है, गतिशीलता है जो लोकमानस को उर्ध्वगामी चेतना प्रदान कर उच्च आदर्शां पर प्रतिष्ठित करती है।
भारतीय संस्कृति में यहाँ के लोक साहित्य और लोककलाओं का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है बिना लोककलाओं के इसकी पूर्णता नहीं हो सकती। लोक ही तो प्रधान अंग है, और इस लोक से ही संस्कृति की समृद्धि है, धन्य है यह भारतभूमि जहाँ अनेक भाषायें, बोलियाँ, रहन-सहन, खान-पान और वेषभूषा के साथ विविध संस्कारों की पवित्र परम्परायें पीढ़ियों से चली आ रही हैं। हर अँचल की रीति, चलन, प्रथा और परम्परायें अलग हैं और सभी में उनकी अपनी मौलिकतायें समाहित हैं, सभी में आँचलिकता है जो उनकी अपनी पहचान का बोध कराती है, सभी भारतीय हैं अनेकता में एकता की ऐसी मिसाल और कहाँ है?
लोक दर्शन धातु में ध´् प्रत्यय लगाकर ’लोक’ शब्द की व्युत्पिŸा होती है आशय यहाँ मात्र इतना है कि जब ’देखने वाला’ रूप में अर्थ प्रकाशित होता है तो अत्यन्त व्यापक रूप में है वो लोक जो सुख-दुख, हास-परिहास, विजय-पराजय, आचार-विचार, कर्मठता, सौजन्यता, शालीनता, जीवन के हास, करूण, श्रृंगार आदि भावों के साथ ही सामाजिक, राजनीतिक, परिवारिक मूल्यों से समृद्ध है। इसमें नदी, सागर, पेड़, वन, उपवन जैसे प्राकृतिक जीवन की चर्चा है तो सामाजिक आचार-विचार, रिश्तों की मर्यादा होती है। कटाई, बोआई, तेली, जुलाहा, अहीर, गड़ेरिया के गीतों उनकी संस्कृति का दिग्दर्शन होता है वहीं आर्थिक पक्षों पर खुलकर लिखा गया है लोक सदैव सजग रहा है तो समयानुकूल राजनैतिक व्यवस्थाओें पर भी लोक ने प्रहार किया है स्वतंत्रता संग्राम की अवधि में लोक ने बढ़चढ़ कर आन्दोलन में हिस्सा लिया बड़ी सहजता के साथ अपनी बात कह डाली कई गीतों को तो उस काल में प्रतिबन्धित किया गया बिरहा, आल्हा, कजली के माध्यम से अनेक लोक कलाकारों ने देश भक्ति का सन्देश दिया है।
लोक अनगढ़ होकर भी गढ़ा हुआ तथा अनपढ़ होकर भी पढ़ा लिखा है भाषा ज्ञान न होते हुए भी साहित्यक उत्कृष्टा से परिपूर्ण रहा वो अनावधानता में ही हुआ होगा पर वे, रस, छन्द, अलंकार, अमिधा, लक्षण, व्यंजना आदि वृŸायाँ, रीति-नीति के विशेषज्ञ लोक में उत्कृष्ठ संगीत सौष्ठव अपनी सरलता, सहजता, बेबकी, अल्हड़पन के साथ व्यक्त करता है तथा उनकी सोच पूर्णतः अव्यवसयिक रही है। इनकी मजबूत परम्परा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है यह गतिशील भी है पर कब तक? लोक कलाकारां की भावी पीढ़ी लोक से क्यूँ जुड़े ? जबकि न उसे आर्थिक संरक्षण मिल रहा न स्तरीय सम्मान। मैं उंगलियों पर गिने जाने वाले कलाकारों की बात नहीं कर रही उन्होने तो अपने परिश्रम से अपनी जगह पा ली है और भाग्य ने उनका साथ दिया तो वह शिखर तक पहुँचे मगर अभी भी लोक कलाकार जो बहुतायत की संख्याँ में हैं जिन्हें न तो आर्थिक सम्बल मिला न नाम ही। फिर भी वे अपनी सहजता में लीन रह कर ही साधना में रत है समय काल परिस्थितियाँ बदलती हैं, मूल्य बदलते हैं, मँहगाई अपने चरम पर है तो कलाकारों की भावी पीढ़ी नौकरी के लिए हजारों किलोमीटर दूर जा रहे जहाँ पैसे कमा कर परिवार पाल सकें ज्यादातर लोक कलाएँ कृषक व मजदूर वर्ग के हैं और कृषि तथा मजदूरी दोनों ही भावी पीढ़ी करना नहीं चाहती अब इससे हानि तो कला की हो रही है ये जो हमारी थाती है, विरासत है जिसके कारण हमारी वैश्विक स्तर पर है जब लोककलाकारों की पीढ़ी ही जब कलाओं से दूर हो रही तो शहर का शिक्षित वर्ग तो इन कलाओं से दूर है ही जो जुड़े भी हैं वो इन अव्यवस्थाओं के चलते कितने दिन जुड़े रहेंगें? उनके लिए तो लोक कलाएँ दोयम दर्जे की हो जाती हैं।
अब समय है हमें जागृत होने का क्यूँकि जब तक हम जागृत नहीं होंगें तो कलाओं का संरक्षण असम्भव है तो हमें सर्वप्रथम इन लोककलाकारों को आर्थिक सम्बल प्रदान करने के लिए सत्त प्रयास करना है।
सबसे पहले मानदेय में वृद्धि अत्यन्त आवश्यक पक्ष है प्रायः लोक कलाकारां का मानदेय बहुत कम है उतने मानदेय में तो कलाकारों का आवागमन ही सुव्यवस्थित रूप से नहीं हो पाता तो जिवोकापार्जन तो सम्भव ही नहीं है अतः सम्मानित धनराशि की व्यवस्था करना कलाकारों के लिए नितान्त आवश्यक है।
बुजुर्ग गायकों के लिए पेंशन योजना की राशि को बढ़ाना चाहिए उन्हें सरकारी संरक्षण मिले उन्हें कलाकार कोटा से राशन आदि की सुविधाएँ उपलब्ध करायी जानी चाहिए। साथ ही उन बुजुर्ग कलाकारों से युवा पीढ़ी को लोक कलाओं का प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए जिससे कलाएँ भी संरक्षित हो सकें व बुजुर्ग कलाकारों को आर्थिक लाभ मिल सके।
जो युवा लोक कलाकार हैं उन्हें मंच प्रदान करना भी आवश्यक है सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाआें को अपने प्रयासों से युवा कलाकारों को मंच प्रदान करने कि व्यवस्था करनी चाहिए जिससे उनका आकर्षण कलाओं के प्रति बना रहे।
युवाओं को स्कॉलर शिप, फेलोशिप आदि प्रदान करने की पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए जिससे उनका रूझान लोक कलाओं के प्रति हो साथ ही कुछ सारगर्भित कार्य सम्पादित करके दे सके जिससे लोक कलाओं का संरक्षण होगा।
लोक वाद्यों के निर्माण के केन्द्र भी बनाने चाहिए साथ ही उन वाद्यों को बेचने में भी स्वयंसेवी संस्थाओं को आगे आना चाहिए जिससे कलाकारों को आर्थिक सम्बल भी मिलेगा और वाद्य निमार्ण की कला भी विलुप्त होने से बचेगी।
लोक में अनेक आश्चर्यचकित होने वाले वाद्य प्राप्त होते हैं जैसे लोटा, चिमटा, सूप, ढपली, खंजरी, लकड़ी, गट्टे आदि।
उनके अनोखे वाद्यों को नवीन प्रयोगशील युवाओं को आकर्षित करें कि वो फ्यूजन आदि में पाश्चात्य वाद्यों का प्रयोग न करके इन वाद्यों की ओर आकर्षित हों।
विद्यालयों में, विश्वविद्यालयों में विषय के रूप में लोक कलाओं को भी ले जिससे अच्छे लोक कलाकार वहाँ नौकरी पा सकें व सम्मानित जीवन जी सकें।
युवाओं को लोक संस्कृति में शोध की प्रेरणा की दृष्टि से लोक संस्कृति शोध संस्थान की स्थापना की जाएँ जहाँ लेखन, ऑडियो, विडियो के माध्यम से शोध डाक्यूमेंटेशन हो सके जो भावी पीढ़ी के लिए उपयोगी होगा।
इस प्रकार के प्रयोगों से ही हम लोक कलाओं के संरक्षक संवर्धन मे ंतो समर्थ हो ही सकेंगे तथा लोक कलाकारों को अपने जीवन यापन में आत्मनिर्भर होने में पूर्ण सहयोग कर सकेंगें।
सौन्दर्य तो सृष्टि संरचना के साथ ही उत्पन्न होता है, प्रकृति के सभी रूपों में प्रायः सौन्दर्य है। नदियों की तरंगित कल-कल हो या मेघ का गर्जन, पक्षियों का कलरव हो या सिंह के नाद का निनाद, पक्षियों के सुन्दर पर हो या सिंह का रौबिला रूप, मयूर का नृत्य हो या सांप की मतवारी लचीली चाल, हाथी की मदमस्त चाल जो मोहे उसमें सौन्दर्य है। वन, उपवन, वाटिका, पुष्प वृक्ष का रिझाता सौन्दर्य अद्भुत है, फूलों के विभिन्न रंग रूप, प्रकृति की अनुपम संरचना आह! किसे न मोहे। हिरण की चितकबरी खाल हो या बाघ की धारीदार खाल, मोर पंख या नीलकंठ के कंठ का अद्भुत रंग संयोजन को कितना सुन्दर रचा प्रकृति ने, आप जिधर भी नज़र डालें उसकी अद्भुत, अनुपम, अलौकिक रचनाओं को अपलक निहारते, सुनते, छूते, स्पर्श कर उन कलाओं का आस्वादन करते रहें। प्रातः काल के उषा की लालिमा हो या सन्ध्याचल का सूर्यास्त आकाश को रंग देता है, अपने विविध रंगो पीला, नारंगी, लाल, श्वेत, आसमानी, सतरंगी रंगो से सजा इन्द्रधनुष हर किसी मोह लेता है।
सौन्दर्य प्रतिक्षण नवीन होता है, नदी की लहरों की भाँति नित नवीन है जो सहृदयों के मन को बांध लेती है, स्थापत्य कलाएँ, मूर्ति कलाएँ, चित्र कलाएँ जड़ हैं, उनमें निर्माण के पश्चात् स्थायित्व होगा नवीनता नहीं, उनमंे न तो अनुराग होगा न विराग वहाँ सौन्दर्य का स्वरूप स्थिर होगा, इसलिए सौन्दर्य अनन्तता में है, प्रकृति चिर सुन्दरी है क्योंकि वो प्रतिक्षण नवीन है। सौन्दर्य अनन्त है तथा अभिव्यक्ति के साधन भी अनन्त होते हैं, सौन्दर्य बोध से उत्पन्न आनन्द का शास्त्र भी अनन्तता की ओर आकृष्ट करता है।
प्रकृति के कण-कण में व्याप्त सौन्दर्य शब्द कलाओं में कब आया, कैसे आया ये कहना तो सम्भव नहीं क्योंकि भारतीय चिन्तन की परम्परा कलाओं के आस्वादन की परम्परा रही है उसे व्याख्यायित करने की नहीं क्यूँकि कला का मूल उद्देश्य तथा चरमोत्कर्ष ही रसास्वादन है और जो विषय अनुभूति का है उसके अभिव्यक्ति की प्रथा रही ही नहीं। पाश्चात्य विद्वान वामगार्टन की बात करें या भारतीय सौन्दर्य परम्परा के जनक वामन की तो वो तो बहुत बाद में आये किन्तु रचनाएं तो बहुत पहले से हो रहीं हैं, तो क्या हम ये मान लें कि उन रचनाओं में सौन्दर्य नहीं था? ये बात नहीं है रचनाएँ तो सौन्दर्य पूर्ण होती ही हैं, कालीदास की अभिज्ञान शकुन्तलम् की शकुन्तला हो या मेघदूत का संदेश वाहक मेघ या कुमारसंभवम की पार्वती… आह! क्या सौन्दर्य चित्रण। रचनाकार ने ’रूप लावण्य’ को इतना सुन्दर उकेरा कि लेखनी शब्द चित्र खड़ा कर दे, सच में अद्भुत और ये सौन्दर्य बोध का विषय, अनुभूति का विषय है, मात्र शास्त्र का नहीं। किन्तु कालान्तर में सौन्दर्य शास्त्र बना, वो पाश्चात्य चिन्तन परम्परा में उपजा धीरे-धीरे भारतवर्ष में भी प्रचलित हुआ। भारतीय मनीषियों तथा पाश्चात्य चिन्तकों ने सौन्दर्य को विविध दृष्टि से विवेचित करते हुए सौन्दर्य शास्त्र का निर्माण किया जिसे ‘एस्थेटिक्स‘ कहा गया।
संगीत तो प्रतिपल, प्रतिक्षण नवीन है और सौन्दर्य संगीत के विविध रूपों में दृष्टिगोचर होता है। उनके संगीत को हृदयागत भावों के उद्घाटन का सफल साधन मानते हुए इसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्म साधन माना है। भारतीय मनीषियों के अनुसार कला वह है जो मुक्ति के लिए उपकारक हो केवल भौतिक सुख-विलास का माध्यम कला को भारतीय दर्शक श्रेष्ठ नहीं मानते। कला का अन्तिम लक्ष्य भौतिक संसार से उठकर ऐसी मधुमती अवस्था को प्राप्त करना है, जिसमें भौतिक द्वन्दों की सत्ता ही विनष्ट हो जाए। भारतीयों की दृष्टि में स्थूलोपासना आनन्ददायिनी कदापि नहीं हो सकती अपितु शाश्वत आनन्द की प्राप्ति के लिए माध्यम भले ही हो सकती है, इसलिए आहत नाद का प्रयोग हमारे यहाँ एक ओर तो दार्शनिकों, योगियों, भक्तों आदि ने परमानन्द की प्राप्ति के लिए किया, दूसरी ओर जनसाधारण ने इसे सामूहिक उत्सव तथा व्यक्तिगत मनोरंजन का साधन बनाया। ध्रुपद गायन इसका ज्वलंत उदाहरण है, प्रत्यक्ष रूप से जन-मानस के चित्तरञ्जन का एक माध्यम है, वहीं परोक्ष रूप से यह मोक्ष प्राप्ति एवं आत्मा से परमात्मा के साक्षात्कार का सरलतम् साधन माना गया है। ‘ध्वनि-नाद‘ हो, ‘छन्द-ताल‘ हो या ‘शब्द-पद‘, समस्त सांगीतिक सौन्दर्य सृष्टि के आधार हैं जो प्राची एवं प्रतीची के सुन्दर रूपों से संयोजित है, जहाँ आघात्, अनुरणन तथा निःशब्द काल के साथ ही विराम भी अपना विशिष्ट महत्व रखता है। भारतीय कला दृष्टि चेतनायुक्त रही है, सौन्दर्य नवीन से नवीनतम रूप निरन्तर धारण करता ही रहा है, शब्द प्रधान न होते हुए भी भाव एवं रसानुभूति संगीत का सबल माध्यम है, नाद परा, पश्यन्ति, मध्यमा, वैथरी रूप में आरोह-अवरोह, मन्द्रत्व-तारत्व, सशब्द-निःशब्द से प्रतिपल नवीन है। छन्द-लय-ताल काल के नियामक तत्व हैं जो रस भाव बोध का माध्यम है और नाद तथा काल को मिलाकर शब्द घर्षण एवं आघात भेद से भाव वैचित्य उत्पन्न करता है और वहीं सौन्दर्य का मूल कलाकार एवं प्रेक्षक को तादात्म्य भाव एवं साधरणीकृत अवस्था से प्राप्त होता है। रस निष्पत्ति सांगीतिक सौन्दर्य की अनुभूति है।
सौन्दर्य बोध की दृष्टि से श्रोता का संगीत मर्मज्ञ होना आवश्यक नहीं क्यूँकि संगीत समझने की नहीं अपितु अनुभव करने की वस्तु है। शब्द समझा जाता है स्वर अनुभव किया जाता है, लय अनुभव से उत्पन्न आनन्द को रक्तार्थ प्राण के माध्यम से मनोमय कोष तक पहुँचाती है। गन्ध भेद, स्वाद भेद, स्पर्श भेद, रंग-भेद करने में असमर्थ व्यक्ति नाद भेद भी नही ंकर पाते और नाद भेद उन पर प्रभावहीन होता है।
संगीत का सौन्दर्य नाद और लय के सूक्ष्म तत्वों पर आधारित है, जो संगीत में प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। श्रुति को स्वर, स्वर को राग, राग को रस में परिणित करके उत्साह, विनोद, मादकता, करूणा, चिंता व उत्सुकता इत्यादि मनुभावों को उभार कर प्राणी को तन्मय करते हैं। संगीत का सौन्दर्य बुद्धिनिरपेक्ष है, यह बात कभी नही भूलनी चाहिए, अन्यथा न तो संगीतकार आह्लादकारी संगीत का सृजन कर सकेगा और न श्रोता को उस संगीत में रस उपलब्ध हो सकेगा। समस्त कलाओं में केवल संगीत ही ऐसी कला है, जिसे अपना स्वरूप प्रकट करने के लिए केवल संतुलित नाद बिन्दुओं की अपेक्षा होती है, अन्य किसी उपादान की नहीं। एक प्रकार से उसका सौन्दर्य स्वतः सिद्ध है क्यूँकि नादाधीनम् जगत सर्वम् अर्थात सम्पूर्ण जगत नादाधीन है। नाद ब्रह्म में कल्पित सौन्दर्य नादाधीन ही है, प्रयोक्ता नाद सौन्दर्य की रक्षा करते हुए लोक को विभोर कर देने वाले संगीत प्रस्तुत करें। ऐसे संगीत का सृजन हो जो मनुष्य की पाशविक बुद्धियों का संहार करके उन्हें ’सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्’ की ओर ले जाए।
स्वर की दीर्घता, सुरीलेपन, वाद-विवादी, प्रतिरोधी, द्वंद्वात्मक स्थिती एवं संबंध के कारण नाद, सौन्दर्य की परमावस्था रहती है। इसीलिए संगीत श्रवण के मध्य यदाकदा अविस्मरणीय क्षण या आनन्दातिरेक कि स्थिती आती रहती है। ध्वनि से उत्पन्न व्यंजन शब्द को अर्थ देता है जिसमें स्पन्दन होता है, स्पन्दन से पुनः स्वर निर्मित होकर सौन्दर्य सृष्टि करता है। अब शब्द और अर्थ बहुत पीछे छूट जाते हैं तथा नाद कि सत्ता रहती है। साथ ही नाद व काल में सशब्द एवं निःशब्द क्रिया एवं काल सौन्दर्य वृद्धि के अमूल्य तत्व हैं।
संगीत सौन्दर्य में इसकी धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक दृष्टि अत्यन्त विशिष्ट है तथा जैसे स्वर की बात करें तो स्वर प्रकृत, प्रकृष्ट, प्रबल व प्रखर रूप में दिखाई देता है और स्वरों का प्रकट एवं गुप्त रूप अद्भुत है, छन्द-ताल का नियमबद्ध व्यापक रूप अतुलनीय है, तो स्फोट-ध्वनि-शब्द-वाक्-पद-बन्दिश रूप अति सौन्दर्य पूर्ण है। वर्ण, अलंकार, लय, यति, पाणि का संयोग विश्व में किसी संगीत में इतने समृद्ध रूप में नहीं अलौकिक, अनिर्वचनीय, अद्भुत सौन्दर्य से ओत-प्रोत भारतीय संगीत मात्र मनोर´्जन का साधन नहीं अपितु वह रसो वै सः से तादात्म्य कराता है। भारतीय चिन्तकों, मन्त्र द्रष्टा ऋषियों की अनुभूति से सृजित संगीत अपने मनोरम सौन्दर्य में शाश्वत स्वरूप के कारण ध्यानस्थ अवस्था में ला देता है। संगीत ध्यान है और ध्यान का अर्थ है मन की दुर्भावनाओं का विध्वंस करना। संगीत में मन का संसार सृजन है, सृष्टि है, जो भी ध्यान में उतरता है उसमें शिव का पदार्पण हो जाता है ध्यान का अर्थ है ‘मृत्यु‘ विचारों, मोह माया वासनाओं की मृत्यु तदनन्तर आत्मा में शुद्ध चैतन्य प्रभावित हो जाता है, ध्यान में ज्ञान का जन्म होता है, जो ज्ञान ध्यान के बिना जन्म लेते है वो मिथ्या है, ध्यान में शुद्ध बोध दिखाई देता है, जीवन का गूढ़ रहस्य खोल देता है। शिव पूजा ही नहीं, अन्तःकरण में शिवत्व की उपलब्धि की बात है, शिवलिंग अन्तर्ज्योति का प्रतीक है, जो ज्ञान दृष्टि जागृत करती है और यही अवस्था शान्ति प्रदान करती है, भारतीय चिन्तन की यही दृष्टि समस्त विश्व में भारत को विश्वगुरू के रूप में प्रतिष्ठित करती है, अतः यही सांगीतिक सौन्दर्य सृष्टि एवं सौन्दर्य चेतना का सार है।
उनके अनोखे वाद्यों को नवीन प्रयोगशील युवाओं को आकर्षित करें कि वो फ्यूजन आदि में पाश्चात्य वाद्यों का प्रयोग न करके इन वाद्यों की ओर आकर्षित हों।
विद्यालयों में, विश्वविद्यालयों में विषय के रूप में लोक कलाओं को भी ले जिससे अच्छे लोक कलाकार वहाँ नौकरी पा सकें व सम्मानित जीवन जी सकें।
युवाओं को लोक संस्कृति में शोध की प्रेरणा की दृष्टि से लोक संस्कृति शोध संस्थान की स्थापना की जाएँ जहाँ लेखन, ऑडियो, विडियो के माध्यम से शोध डाक्यूमेंटेशन हो सके जो भावी पीढ़ी के लिए उपयोगी होगा।
इस प्रकार के प्रयोगों से ही हम लोक कलाओं के संरक्षक संवर्धन मे ंतो समर्थ हो ही सकेंगे तथा लोक कलाकारों को अपने जीवन यापन में आत्मनिर्भर होने में पूर्ण सहयोग कर सकेंगें।