पतंजली के शब्दों में अटूट प्रेम द्वारा ईश्वर की प्राप्ति योग का लक्ष्य हैं, स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कहा है- ‘योगोयुक्त तमो मतः‘ अर्थात् मुझसे लीन हो जाना ही योग है। यौगिक क्रियाएँ अनुशासनबद्ध होती हैं पतंजली ने कहा- ‘योगानुशासनम्‘ जो भगवान कृष्ण के ‘योगाकर्मसुकौशलम्‘ का ही रूप है। महर्षि पतंजली के योगशास्त्र के सूत्र ‘योगश्चित्तवृत्रिनिरोधः‘ में चित्तवृत्तियांे को विभिन्न याआकार में परिवर्तित होने से रोकना जो शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक किसी भी रूप में हो सकता है आध्यात्मिक शक्ति आत्मा को शुद्धता प्रदान कर अन्तरिक पुष्टता प्रदान करती है भौतिक वाह्य शक्तियों के प्रदूषण का माध्यम वायु, जल तथा आहार, दैनिक अव्यवस्थित दिनचर्या है और नकारात्मक भाव इष्र्या, द्वेष, मदमोह, माया, काम क्रोधादि हैं, वे सकारात्मक तथा धनात्मक ऊर्जा का क्षरण करते हैं। मन, बुद्धि और शरीर आत्मशक्ति से संचालित है, इनका नियमन आवश्यक है और इसके सरलतम् दो मार्ग हैं योग तथा संगीत। योगी की कुण्डलिनि जागृत होने पर जब वह उध्र्वगामी होती है तो उस स्फोट को ‘नाद‘ कहते हंै व्यापक रूप से देखने पर याद नाद सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करता है ‘सुषुम्ना मार्ग‘ बन्द होने के कारण वह अज्ञानी जीवों को सुनाई नहीं पड़ता। हठयोगी साधना से वह खुल जाता है। उपनिषदों में इसके गुणों की चर्चा भी प्राप्त होती है। यही नाद उपाधियुक्त होने पर सप्त स्वरों में विभक्त होता है। यह नाद शरीर के अनाहद चक्र से उठने से उत्पन्न गर्जना होते ही प्रणव के रूप में स्थापित होता है जिसे ऊँकार कहते हैं हठयोग में इस नाद की साधना का प्रकार बताया गया है। आदिनाथ शंकर के बताये हुए सवाकोटि लय योगों में नादानुसंधान को ही श्रेष्ठ मानकर आरम्भ, घर, परिचय व निष्पत्ति ये चार नाद भूमियाँ कही गई है। इसमें निष्पत्ति अवस्था ही सिद्धावस्था है, नाद व बिन्दु दोनों का अनन्य सम्बन्ध है, उध्र्व बिन्दु सहस्राधार चक्र में तथा अधोबिन्दु मूलाधार चक्र में स्थित है। इसके अतिरिक्त आज्ञा, विशुद्धि, अनाहत, मणिपुर और स्वाधिष्ठान चक्रों में बिन्दु है जो गौण है।
पन्द्रह दिनों का नादाम्यास योगी के चित्त को एकाग्रता की स्थिति में लाता है, उसे स्थूल से सूक्ष्म नाद का श्रवण होने लगता है। आहत नाद जो प्रत्यक्ष है वह भी इसी नाद भूमि पर उत्पन्न होता है।
नकारप्राण नाभानं दकारंऽनलंविदुः।
जातः प्राणाग्नि संयोगान्तेन तत्र नादोऽभिधीयते।।
इसी नाद के माध्यम से मोक्ष मार्ग की प्राप्ति होती है।
वस्तुतः योगसाधना भारत की श्रेष्ठतम् देन है, मानव देह प्रयोगशाला रूप में चित्रवृत्ति निरोध के माध्यम से सत्य रूप नाद और संगीत है। जो आत्मानुभूति या आत्मदर्शन का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। लोक व्यवहार मंे सामान्यतया दो पृथक वस्तुओं का संयोग ‘योग‘ कहा गया किन्तु पारिभाषिक भाषा में योग शब्द का तात्पर्य दर्शन शास्त्र के उस रूढ़ शब्द से है जिसका ध्येय व्यष्टि चेतन का समष्टि चेतन के साथ सम्बन्ध स्थापित करना है ‘योग‘ जीवात्मा का परमात्मा में लीन होने की शक्ति है।
उपनिषदों में मंत्र योग, हठयोग, लय योग तथा राजयोग नाम प्राप्त होते हैं, लोक जीवन में ‘हठयोग‘ को ही योग कहा जाने लगा। भारतीय हठयोगी व संगीतकार दोनों ने शरीर को ब्रह्मण्ड का लघुरूप मानते हुए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का साधन कहा। देह को साधना की भूमि बनाकर उसमें (अचेतन शरीर) चेतन की स्थिति को खोजा इसमें नाद तथा संगीत महत्वपूर्ण है। सुदीर्घ आध्यात्मिक अनुभवों से इन योगियों ने नाद तत्व की शक्ति व उसके स्वरूप् का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन किया गया है। प्रायोगिक विद्या योग के द्वारा ‘चक्रभेदन‘ और ‘कुंडलिपि‘ जागरण से योगी ने शब्द, ध्वनि स्फोट के सूक्ष्म भेदक तत्वों को आकार-प्रकार, वर्ण रूप रंग को नाद की संज्ञा प्रदान की। नाद बिन्दु उपनिषद में मन को संयम की स्थिति में लाकर ध्यान की स्थिति तक पहुँचाने में नाद को सर्वश्रेष्ठ साधन माना गया। ‘नाद‘ में आसक्त चित्त ‘नाद‘ के अतिरिक्त कुछ और नहीं चाहता, इन्हीं विशिष्टताओं के कारण योगशिखोपनिषद में ‘नाद ब्रह्म‘ तथा अविनाशी ‘शब्द ब्रह्म‘ कहा, योगी नाद में समस्त विश्व को देखते हैं ‘नास्ति नादात् परो मन्त्रः‘ अर्थात् नाद से षडकर कोई मंत्र नहीं है। योग में नादानुसंधान का प्रयोजन ही शक्तिशाली साधन है जिससे मोक्ष प्राप्ति है, यह उत्पादक, ग्राहक और वाहक तीनों उपकरणों के माध्यम से सिद्ध होता है।
‘प्राणवायु‘ वायुमहाभूत के सात्विक अंग से बना है, शरीर विशेष में मिलकर उसी के रंग-रूप, आकार-प्रकार का प्रतीत होता है, शरीर में वह दस भागों में विभक्त है, सदा गमनशील है जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति किसी भी समय उसका व्यापार रूकता नहीं है। योगी आसन, प्राणयाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान के अनुष्ठान से परिपूर्ण होकर सूक्ष्म तत्वों को दर्शन करता है। संगीतज्ञ भी गात्र अर्थात् शरीर में इन्हीं तत्वों को धारण करते हुए आसन प्राणायाम आदि के संागीतिक स्वरूप् के माध्यम से सूक्ष्म तत्व ‘परब्रह्म‘ के दर्शन करते हैं। यही प्रक्रिया क्रमशः वाद्यों वेणुु, वीणा आदि में भी आयी।
नाद को ब्रह्म, विष्णु, महेश मानकर सर्जन, धारण एवं विलय तीनों शक्तियाँ प्रदान कर दी। लोक में समस्त वाणी का नियामक ‘नाद‘ है और संगीत ‘नाद‘ के अधीन है, गायन, वादन, नृत्य तीनों में व्याप्त है। नाद मोक्ष सहायक तत्व है क्योंकि उसमें रूप व श्रव्यता हैं। शार्डंगदेव ने कहा है कि शाश्वत धर्म, कीर्ति व मोक्ष तीनों को ध्यान में रखकर संगीत रत्नाकर की रचना कर रहा हूँ। संगीत गायन, वादन व नृत्य का समावेश है। कथन में नृत्त की सार्थकता तथा संगीत के अन्तर्गत संगम की पुष्टि ‘योग‘ की उपलब्धियों के माध्यम से हो जाती है। संगीत की लय क्रमबद्ध श्वासोच्वास प्रक्रिया है जो ‘योग‘ के निकट ले जाकर अध्यात्म से जोड़ता है और सभी ऋणात्मक शक्तियों का क्षरण करके धनात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। यही अन्तः स्थल में आनन्द का संचार करके परमानन्द और सत्, चित, आनन्द की अनुभूति कराता है। संगीत में तीन सीढ़ियाँ आरोह, अवरोह तथा स्थिरता होती है, जिसे महर्षि व्यास ने ‘योगारम्भ‘, ‘योगारूढ़ः‘ तथा ‘योगसिद्धि‘ कहा है। योग साधना की प्रथम सीढ़ी संकल्प द्वितीय शनैः-शनैः अपरिगम्य तथा तृतीय सीढ़ी परमतत्व में लीन हो जाना है। महर्षि अरविन्द ने संगीत तथा योग साधना निष्पन्न ऊर्जावान कला को ‘यौगिक संगीत‘ की संज्ञा दी है। प्राण तथा प्रकृति पंच महाभूत तत्व (भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश) मन, बुद्धि एकीकृत हो ईश्वर का दर्शन कराते हैं।
प्रत्येक योगी शरीर से मेरूदण्ड में स्थित चक्रों को जाग्रत कर मूलाधार चक्र में सुप्त कुंडलिनी को जाग्रत करता है जो कि प्रत्येक चक्रों से होती हुई उध्र्वगामी सुषुन्न नाड़ी के पथ से कपालस्थित सहस्राधार चक्र में शिव से मिलकर एकाकार होती है, यही शिव-शक्ति, जीव-ब्रह्म आत्मा तथा परमात्मा के मिलन का मूलाधार है। योगाभ्यास में आसन, ध्यान, साधना, प्राणायाम आदि अंग है बृहद्देशी में प्राणायाम शरीर में प्रवाहित इडा, पिंगला, सुषुन्ना नाड़ियों को शुद्ध करते हुए क्रमशः उध्र्वगामी होते हुए शरीर में स्थापित सात चक्रों को पार करती हैं। प्रथम चक्र ‘मूलाधार चक्र‘ है जो सिंहासन में बाँये पैर की एड़ी के स्थान पर स्थित है यहाँ पृथ्वी तत्व प्रधान है, दूसरा ‘स्वाधिष्ठान चक्र‘ मेरूदण्ड के अन्तिम सिरे पर स्थित है यहाँ जल तत्व प्रधान है, तृतीय ‘मणिपुर चक्र‘ नाभी के पीछे मेरूदण्ड पर स्थापित है यहाँ अग्नि या तेजस्तत्व प्रधान है, चतुर्थ अनाहद चक्र हृदय स्थल छाती के बीच गड्डे के पीछे मेरूदण्ड पर यहाँ वायु तत्व प्रधान है, पंचम चक्र विशुद्धि चक्र, ‘विशुद्धि चक्र‘ गर्दन के मध्य स्थित है पंचम चक्र दोनों भौहों के मध्य है यहाँ आकाश तत्व प्रधान है, इसके पश्चात् बिन्दु विसर्ग नाम विशिष्ट स्थान है जिसे अमृतकुण्ड नाम से भी संज्ञापित किया गया है इस स्थान पर ब्राह्मण शिखा रखते थे, ‘अष्टम चक्र‘ के रूप में सहस्त्राधार चक्र है जो कपाल में स्थित है। बृहद्देशी मतंग मुनि द्वारा रचित प्राचीन व प्रामाणिक ग्रन्थ है, जिसमें संगीत के लक्ष्य से आठ चक्रों की व्याख्या की गई है।
संगीतशात्रियों ने योगतंत्र के आधारभूत सिद्धान्तों पर ही ‘नादोत्पत्ति‘ (जो कि संगीत का मूल है) माना है। मतंग मुनि ने अपने ग्रन्थ बृहद्देशी में इसी आधार पर ध्वनि-ध्वनि से बिन्दु-बिन्दु से नाद-नाद से द्विविध मात्रा (स्वर-व्यंजना) तथा षडजादि स्वर के क्रम में स्वरोत्पत्ति कही है। सृष्टि की उत्पत्ति, वर्धन तथा संहार का कारण ब्रह्मा, विष्णु, महेश को माना जो नाद रूप में इनकी पराशक्ति को योग में चित्त शक्ति कहा है नाद की उत्पत्ति धारण तथा विलय का आधार ‘देह‘ है नाद के 22 भेद श्रुतियों को उत्पत्ति हृदय तथा सुषुन्ना से संलग्न 22 नाड़ियों के भीतर आधात से होती है। संगीत के सप्त स्वर उक्त वर्णित चक्रों तथा बिन्दु विसर्ग स्थान को अलंकृत करते हुए निष्पन्न होते हैं।
शार्डंगदेव ने इन स्वरों के नाद, स्थान, श्रुति, कुल, देवता, ऋषि, छन्द और रस से जोड़ा है। जो योगशास्त्र का ही प्रभाव है। इन प्रत्येक चक्रों के स्थान, रंग, आकार को ध्यान में रखकर संगीत का अभ्यास करने पर मेरूदण्ड झंकृत सा होता है जिसे प्राप्त करने के लिए योग साधक को आसान, प्राणायाम तथा हठयोग क्रियाएँ करनी होती है। उसी को संगीत साधक अपनी स्वर साधना से योग का चरम लक्ष्य प्राप्त कर लेता है। स्वरों की योगशास्त्रानुमोदित पद्धति से तथा गुरू द्वारा उपदिष्ट परम्परा से किए गए अभ्यास से यह चक्र जाग्रत उठते हैं जिससे चित्त में एकाग्रता, मानसिक संतुलन को बल मिलता है। स्वरों के सही उच्चारण से रोगों का भी शमन होता है यथा-
- नासिका, कंठ, उर, तालु, जिह्वा, दन्त से निष्पन्न-षड़ज-जो कि पित्तज रोगों का शमन करता है।
- नाभि, वायु, कंठ शीर्ष से ध्वनित-ऋषभ-कफ तथा पित्त प्रधान रोगों का शमन करता है।
- नाभि, कंठ, शीर्ष, नासिका से निष्पन्न-गान्धार-पित्तज और रोगों का शमन करता है।
- नाभि, उरः प्रदेश हृदय से टकराकर, मध्यमान नाद से उत्पन्न-मध्यम स्वर वात तथा कफ प्रधान रोगों का शमन करता है।
- नाभि, उर, हृदय, कंठ, शीर्ष, पाँच स्थानों का स्पर्श करता हुआ स्वर-पंचम-कफ प्रधान रोगों का शमन करता है।
- पूर्व के पाँच स्वरों की प्रकृति से निष्पन्न तथा चित्त को प्रसन्न तथा उदासीन बनाने वाला धैवत स्वर कफ प्रधान रोग मिटाता है।
- नासिका से उत्पन्न निषाद सभी स्वरों को अपनी तीव्रता से दबाने की क्षमता रखने वाला यह स्वर वातज रोगों का शमन करता है।
विभिन्न आवृत्तियों में अनुनादित स्वर मनुष्य के शरीर की सभी कोशिकाओं को अलग-अलग ढं़ग से प्रभावित करते हैं तथा संतुलन प्रदान करते हैं यह योगविज्ञान के ज्ञाता तुम्बरू ऋषि थे जिन्होंने ध्वनि की आवृत्ति से पड़ने वाले असर का अध्ययन, मनन, चिन्तन, विश्लेषण कर रोगों पर प्रभाव सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया उनके अनुसार ऊँची और असमान आवृत्ति का वात पर मोटी स्थिर गम्भीर आवृत्ति का पित्त पर और कोमल मृदु आवृत्ति का कफ के गुणों पर असर पड़ता है और ऐसी आवृत्ति जिसमें तीन गुण हो उसका त्रिदोष पर असर होता है। ऐसी आवृत्ति सन्निपातज कहलाती है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं योग दर्शन में शरीर व उसके विज्ञान को मान्यता दी है, सम्पूर्ण देश में व्याप्त योग साधना के सहज गम्य तत्वों को संगीत मनीषियों ने अपनाया है, योगदर्शन में स्वीकृत शक्ति केन्द्रों का उपयोग तथा विनियोग संगीत शास्त्र में भी उपलब्ध है। योग के देशव्यापी व्यावहारिक सशक्त प्रभाव का स्वरूप योग दर्शन के नाद ब्रह्म का पोषण संगीत के ग्रन्थों में अनायास ही सक्रान्त हो गया।