लोकगीत सामाजिक व्यवस्थाओं पर कटाक्ष किस प्रकार करते हैं ये एक सोहर गीत में हिरण कथा के माध्यम से व्यक्त किया गया है …सोहरों में हैं। राम के जन्मदिन रामनवमी और कृष्ण के जन्मदिन कृष्णाष्टमी के अवसर पर भी भजन के साथ सोहर गाने की परम्परा है।
एक सोहर
छापक पेड़ छिउलिया त पतवन धनवन हो
तेहि तर ठाढ़ हिरिनिया त मन अति अनमन हो।।
चरतहिं चरत हरिनवा त हरिनी से पूछेले हो
हरिनी ! की तौर चरहा झुरान कि पानी बिनु मुरझेलु हो।।
नाहीं मोर चरहा झुरान ना पानी बिनु मुरझींले हो
हरिना ! आजु राजा के छठिहार तोहे मारि डरिहें हो।।
मचियहिं बइठल कोसिला रानी, हरिनी अरज करे हो
रानी ! मसुआ त सींझेला रसोइया खलरिया हमें दिहितू नू हो।।
पेड़वा से टाँगबो खलरिया त मनवा समुझाइबि हो
रानी ! हिरी-फिरी देखबि खलरिया जनुक हरिना जियतहिं हो
जाहु हरिनी घर अपना, खलरिया ना देइब हो
हरिनी ! खलरी के खँजड़ी मढ़ाइबि राम मोरा खेलिहेनू हो।।
जब-जब बाजेला खँजड़िया सबद सुनि अहँकेली हो
हरिनी ठाढि ढेकुलिया के नीचे हरिन के बिजूरेली हो।।
गीत के प्रथम दृश्य में ….हिरन हिरणी से पूछता है तुम्हारा मुख सूखा क्यूँ है क्या तुम्हें प्यास लगी है तो हिरनी व्यथित हो कहती है कि आज राजा दशरथ के घर राम की छठी है और वहाँ सभी हिरणों को मार कर लाने का आदेश हुआ है तो तुम्हें भी मार डालेंगे और अन्तत: हिरण मारा जाता है । गीत के दूसरे दृश्य कौशल्या मचिया पर बैठी है और हिरणी उनके पास जाकर हिरणी की खाल माँगती है कहती है कि मास तो तुमने पका लिया खाल ही दे दो जिसे पेड़ पर टाँग दूँगी व उसे देखकर मन को समझाऊँगी जिससे मैं अपने हिरण को अपने पास महसूस करूँगी अब सामंती व्यवस्था का विभत्स रूप वर्णित है कि कौशल्या कहती हैं कि उस खाल से खंजरी बनेगी जिसे मेरे राम खेलेंगे इसलिए खाल मैं नहीं दे सकती गीत में तीसरा दृश्य आता है जब जब खंजरी बजती है हिरणी के मन में हूक उठती और एक तरफ़ राम उस खंजरी के आवाज़ को सुन खेल रहें हैं वहीं दूसरी ओर उसी खंजरी के आवाज़ को सुन हिरनी बिलख रही है … क्या अद्भुत वर्णन है मन को बेधता हुआ कटाक्ष काश ….. हम समझ पाते अपने सुख व दूसरे के दुख के मध्य का द्वन्द जिसे लोक ने इतनी सहजता से हिरनी के माध्यम से कह दिया …