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मेरी लोकयात्रा

लोक गीत कब आया जीवन में इसे बताना शब्दों में समाना तो नामुमकिन पर शायद जब से आँख खुली लोक को ही सुना , जाना , जिया ….. सीखा नहीं ….. वो तो स्वत: ही समाता चला गया और उपजा घर आँगन में पूजा के समय , बच्चे के जन्म,छठी ,बरही ,मुंडन ,छेदन ,विवाह , जन्मदिन ,रामनवमी , नव रात्र के अतिरिक्त कृष्ण जन्माष्टमी से छटी के दिन तक पड़ती ढोलक पर थाप और अनेक पास पड़ोसन के समवेत स्वरों में उपजे गोकुला मे बाजत बधईया नन्द घरे से लेकर भजन तक इन दिनों का समापन निश्चित रूप से मेरे लोक नृत्य से होता था ….. घर के सामने की ज़मीन पर रहने वाले ग्वाले बरसाती ,मित्थू व बेचन जब बारिश के दिनों मे दूध लगाने के बाद हमारे घर के चबूतरे पर अपनी चौपाल लगाते थे जिसमें बेचन की टनकती ढोलक व समवेत पुरूष स्वरों का बिरहा ….. आह…. क्या रस सृष्टि करता था अम्मा का सख़्त आदेश था वहाँ न जाने का ….. सो सीढ़ी पर बनी खिड़की व जालीवाले कमरे की खिड़की कला का आनन्द लेने का माध्यम बनती वहाँ बैठकर बालकनी मे बैठने जैसा आनन्द आता ……बिरहा ,आल्हा ,
चनैनी के अनेक बीज मन में रोपे जा चुके थे ….अरे हाँ ये बीजारोपण में बहुत बड़ा हाथ तो हमारी नानी का था जो सुबह से एक से एक लोक भजन गातीं कभी राम जी तो कभी गंगा मईया कभी देवी गीत ….हठी तो इतनी कि लाईट चले जाने पर बैठ जातीं और शुरू …. तुम दीन बन्धु भगवान ख़बर ल्यौ मोरी दुख हरो द्वारिका नाथ शरण मैं तोरी ……फिर लाईट आने पर ही खाना खातीं 😀 लोक गीतों को गाने का शौक़ और मज़बूत हुआ शशिकला दूबे जी जिन्हें हम प्यार से कोला दीदी कहते दीदी की इतनी सुन्दर ढोलक बजती कि क्या कहूँ और कण्ठ तो इतना मधुर …आहा …. क्या कहने वो बिलकुल गंवई गीतों को भी इतनी मधुरता से गातीं कि लोक गीतों से प्यार क्यूँ न हो जाये …. उन गीतो में रची बसी छुपी बारीकियाँ जानने का मौक़ा मिला पं युक्ति भद्र दीक्षित जी के पास ….. शादी बनारस से प्रयाग फिर लम्बा अन्तराल बहुत वर्षों तक केवल नाम से ही जानती रही क्यूँकि घर के पीछे का घर उनका ही था पर संकोच वश जाती नहीं थी …. जब गई तो बड़ी मीठी डाँट मिली तुम इतने वर्षों से हो आई क्यूँ नही ……बहाने बनाये फिर सच्चाई कह दी कॉलोनी मे बहू हूँ न इसलिए ……. वो झट से बोल उठे तुम हमार बिटिया होय गईयू अब तो अईहो न… उस दिन से वो हमारे बाबूजी बन गये ।बहुत कम वर्षों का सानिध्य रहा पर उन्होंने सिखा दिया लोक से प्रेम करना 🙏